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वीर का बलिदान

वृंदावनलाल वर्मा

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :222
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5749
आईएसबीएन :81-7315-251-9

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1857 के संग्राम में शत्रु सैनिकों के समक्ष भारतीय सैनिकों द्वारा दिखाए गए प्रचंड पराक्रम की कहानी

Veer ka balidan

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


पृथ्वीराज चौहान घायल होकर गिर पड़े और अचेत हो गए। फिर घोर युद्ध छिड़ गया। पृथ्वीराज का एक सामंत वहीं लड़ रहा था। नाम था संयम राय। अपने स्वामी की उस दुर्गति को देखकर आपे से बाहर होकर हथियार चलाने लगा। सामना करने वाला भी बेकाबू हो गया था। युद्ध में संयम राय के पैर कट गए और वह गिर पड़ा। युद्ध कहीं घमासान था, कहीं इखरा-बिखरा। पृथ्वीराज जहाँ घायल और अचेत पड़े थे वहाँ और कोई नहीं था। लाशें पड़ी थीं। गिद्धों की बन आई। झपटे लाशों पर। पृथ्वीराज की आँखें फोड़ने और खाने के लिए भी आ गए। संयम राय ने देख लिया। बुरी तरह घायल हो जाने के कारण कराह रहा था। परंतु बलिदानी प्रकृति उभर उठी। संयम राय ने अपनी कमर से छुरा निकाला और कटे पैर की जांघ से मांस काटकर गिद्धों को सामने फेंक दिया। कराह दब गई, बलिदानी शौर्य ने दबा दी। गिद्धों ने पृथ्वीराज की आँखें छोड़ दीं और संयम राय के मांस के टुकड़े पर आ झपटे। संयम राय ने फिर कुछ बोटियाँ गिद्धों को खिलाईं और….



प्रस्तुत कहानी संग्रह में लेखक ने रणभूमि में शत्रु सैनिकों के समक्ष भारतीय सैनिकों द्वारा दिखाए गए प्रचंड पराक्रम को कहानी के रूप में प्रस्तुत किया है। साथ ही—‘वैल्लूर का विद्रोह’, ‘इब्नकरीम’, ‘‘उस प्रेम का पुरस्कार’, ‘टूटी सुराही’, ‘स्वर्ग से चिट्ठी’ तथा ‘गवैए की सूबेदारी’, जैसी ऐतिहासिक कहानियाँ भी संगृहीत हैं।
वर्माजी की कहानियों का यह संग्रह पठनीय एवं संग्रहणीय-दोनों है।


वीर का बलिदान



भारत पर उत्तर-पश्चिम से आक्रमण होते आए हैं और उनका प्रतिरोध भी डटकर हुआ। दसवीं शताब्दी के पहले जो आक्रमण हुआ था, उसका सामना देश के राजाओं और प्रजा ने मिलकर किया था। यहाँ की स्त्रियों ने अपने गहने बेच-बेचकर आर्थिक सहायता की थी। परन्तु आपसी फूट, अपने राज्य के विस्तार की स्वार्थपूर्ण भावना और अहंकार ने गहरी जड़ पकड़ ली थी। दसवीं शताब्दी के अंत पर तो ये दोष बहुत ऊपर आ गए थे। वीरता की भारत में कोई कमी न थी। व्यक्तिगत शौर्य अद्वितीय था। विदेशी आक्रमणकारियों से मुकाबला करने में कभी नहीं हटते थे और आपस में भी एक-दूसरे का सिर काटने में, बदला लेने की भावना में कसर रत्तीभर भी नहीं लगाते थे। त्याग और बलिदान के भी ऐसे-ऐसे उदाहरण पाए जाते हैं, जिनकी बराबरी का उदाहरण संसार भर के इतिहास में शायद ही कहीं मिलता हो।

यूरोप की एक घटना का उदाहरण विशेष तौर पर प्रस्तुत किया जाता है। है भी घटना प्रेरक और ओजदायिनी।

फ्रांस और इंग्लैण्ड के बीच में मध्य युग में बहुत युद्ध हुए हैं। एक युद्ध में अँगरेजों का सेनानायक घायल होकर गिर पड़ा। खून बह रहा था उसके घावों से। बहुत प्यासा था। पानी पीने की थोड़ी व्यवस्था हुई। निकट ही एक और घायल पानी के लिए त्राहि-त्राहि कर रहा था। उस घायल सेनानायक ने कहा, ‘‘भाई, जल की तुम्हें ज्यादा जरूरत है, तुम पिओ !’’
वह प्यासा मर गया; परन्तु बलिदानी की भावना में पीछे नहीं हटा।

एक घटना अपने देश भारत की है। दिल्ली के पृथ्वीराज चौहान और महोबा के चंदेल राजा परमाल (परमर्दिदेव) के बीच कई लड़ाईयाँ हुई। एक का पूर्ण वर्णन ‘पृथ्वीराजरासो’ में है।

लड़ाई का आरंभ बड़ी धूमधाम से हुआ। ढोल पिटे, नगाड़े बजे, रणतूर्य फूँके गए। खूब गरज-तरज हुई। ललकार चलती ही थी। पहले द्वंद्व युद्ध हुआ। एक ओर पृथ्वीराज चौहान के सामंत और दूसरी ओर राजा परमाल के। हथियार चलाने के समय न कोई अपने बदन की परवाह करता था और न बिरन की। केवल एक बंधन निषेध था और यह पुरानी परंपरा से चला आ रहा था। वह था विरोधी पर कमर के नीचे के किसी भाग पर तीर-तलवार का न चलाना।
पृथ्वीराज चौहान अपने जिस खडग से लड़ते थे वह दुधारा था। कहलाता था ‘दुधारा खाँड़ा’। सन् 1911 में लाल किले के एक भाग में प्राचीन वस्तुओं का प्रदर्शन किया जा रहा था। इनमें पृथ्वीराज चौहान का दुधारा खाँड़ा भी रखा था और एक ओर महाराणा प्रतापसिंह का भी खाँड़ा। दोनों के सामने दर्शक नतमस्तक हो गए। पृथ्वीराज अपने दुधारा खाँड़े से महोबा के युद्ध में लड़े थे। परंतु उनका प्रतिद्वंदी चंदेल सामंत भी कुछ कम नहीं। विकट लड़ाई हुई। पृथ्वीराज चौहान घायल होकर गिर पड़े और अचेत हो गए। फिर घोर युद्ध छिड़ गया। पृथ्वीराज का एक सामंत वहीं लड़ रहा था।

नाम था संयम राय। अपने स्वामी की उस दुर्गति को देखकर आपे से बाहर होकर हथियार चलाने लगा। सामना करने वाला भी बेकाबू हो गया था। युद्ध में संयम राय के पैर कट गए और वह गिर पड़ा। युद्ध कहीं घमासान था, कहीं इखरा-बिखरा। पृथ्वीराज जहाँ घायल और अचेत पड़े थे वहाँ और कोई नहीं था। लाशें पड़ी थीं। गिद्धों की बन आई। झपटे लाशों पर। पृथ्वीराज की आँखें फोड़ने और खाने के लिए भी आ गए। संयम राय ने देख लिया। बुरी तरह घायल हो जाने के कारण कराह रहा था। परंतु बलिदानी प्रकृति उभर उठी। संयम राय ने अपनी कमर से छुरा निकाला और कटे पैर की जांघ से मांस काटकर गिद्धों को सामने फेंक दिया। कराह दब गई, बलिदानी शौर्य ने दबा दी। गिद्धों ने पृथ्वीराज की आँखें छोड़ दीं और संयम राय के मांस के टुकड़े पर आ झपटे। संयम राय ने फिर कुछ बोटियाँ गिद्धों को खिलाईं और इस प्रकार अपने प्राण देकर पृथ्वीराज को बचा लिया। पृथ्वीराज की सेना के कुछ लोग भी आ गए। उन्होंने यह सब देखा। वे पृथ्वीराज को उठा ले गए। संयमराम ने भारत की इस प्राचीन शूर परंपरावाली संस्कृति का जो तेज्सवी बलिदान वहाँ छोड़ा, उसका वर्णन चंदबरदाई ने किया है।
किसी भी इतिहास में इसकी बराबरी का उदाहरण मिलना दुर्लभ है


अंबरपुर के अमर वीर



25.2.57 को पूरे सौ बरस के ऊपर हो चुके हैं। लखनऊ में अंग्रेज पार नहीं पा रहे थे। एक मोरचा जीता तो दूसरा खो दिया। रेजीडेंसी को घेरे से छुटकारा देने के लिए जो सेना कानपुर से आई, वह लड़ते-लड़ते खुद घिर गई। दिल्ली का पतन हो चुका था, परंतु लखनऊ का युद्ध-हठ अँग्रेजों के कलेजे का काँटा बन रहा था।

तीन दिशाओं से अंग्रेजों के सहायकों की सेनाएँ लखनऊ को रौंद डालने के लिए चलीं। अँग्रेजों की एक सेना का नायक जनरल फैक्स था, दूसरी का जनरल रोक्राफ्ट और तीसरी उनके सहायक तत्कालीन नेपाल नरेश राणा जंगबहादुर के नौ हजार गोरखों की थी। नेपाल की उस समय अंग्रेजों के साथ परस्पर सहायता और मैत्री संधि थी। नेपाल नरेश को अंग्रेजों की सहायता करनी पड़ी।

घाघरा के उत्तर से नेपाली सेना, पूर्व में दो भिन्न-भिन्न स्थानों से जनरल फैक्स और जनरल रोक्राफ्ट की अंग्रेजी सेनाएँ काशी से दूर उत्तर में आ मिलीं। इन्हें लखनऊ पर धावा बोलना था।

इन सेनाओं ने अपनी सुविधा के लिए जो मार्ग सहज ही लखनऊ पर आक्रमण करने के लिए तय किया, वह घाघरा और गंगा के बीच का था। नेपाली सेना घाघरा के दक्षिण में आ चुकी थी। सब मिलाकर सैन्य शक्ति बीस हजार की हो गई होगी। तोपें, गोला-बारूद का सामान इत्यादि इनके पास काफी था। इन्हें विश्वास था कि लखनऊ पहुँचे नहीं कि क्रांतिकारियों का अड्डा साफ किया। एक जासूस ने जनरल फैक्स को खबर दी— ‘अंबरपुर के किले में, जो रास्ते में पड़ता है कुछ लोग मुकाबले की तैयारी कर रहे हैं।’
‘कितने होंगे ?’

‘सौ से ज्यादा नहीं हो सकते। सिपाही नहीं हैं, किसान हैं।’
‘किसान ! यह हिम्मत ! सामान क्या है उनके पास ?’
‘एक तोप और कड़ाबीन बंदूकें।’
अँग्रेरेजी सेना इस किले की उपेक्षा करके, किनारा काटकर लखनऊ की ओर जा सकती थी; पर वह क्रांति की एक भी चिंगारी को यों हीं छोड़ नहीं जाना चाहती थी। ये थोड़े से लोग पीछे न मालूम कितनों में आग फैला दें; क्योंकि अंग्रेज एक जगह युद्ध की आग बुझा देते तो दूसरी जगह आग लग जाती थी। और फिर अंबरपुर का छोटा-सा किला और उसमें अधिक-से अधिक सौ लड़ने वाले और एक तोप। बात-की बात में मय किले के सब धूल में मिला दिए जावेंगे।
एक जनरल ने दूसरे से कहा, ‘‘वो पागल हैं या बिलकुल मूर्ख !’
‘‘हो सकता है, तोपें कई हों, क्योंकि अवध में जब हमारी अमलदारी हुई तब कई ताल्लुकेदारों ने अपनी तोपें मिट्टी में गाड़ कर रख दी थीं। इन लोगों ने दबी –छिपी तोपें अब निकाल ली हों।’

‘जासूस को पता न चलता ? तोप एक ही है और सौ आदमी से ज्यादा नहीं होंगे। ताज्जुब यही है कि हमारी इतनी फौज का मुकाबला करने की ये हिमाकत क्यों कर रहे हैं ?’
‘कहीं से कुछ मदद पाने की उम्मीद कर रहे होंगे।’
‘हो सकता है; लेकिन हमें सही खबर मिली है कि आसपास तो क्या, दूर भी इनका कोई मददगार नहीं है।’
‘इनके खतम करने में देर नहीं लगानी चाहिए। लखनऊ जल्दी पहुँचना है।’

अंबरपुर घेर लिया गया। किला मजबूत था, परंतु अँग्रेजी तोपें उसकी धूल उड़ा देने के लिए बहुत काफी थीं। किले में वास्तव में एक ही तोप थी। जासूस ने सूचना गलत नहीं दी; किंतु लड़नेवालों की संख्या उसने सही नहीं बताई थी। वे सौ नहीं थे, केवल चौंतीस थे और मुकाबले में आक्रमणकारी बीस हजार।
किले की प्राचीर के छेदों में से उन्होंने दीमकों की तरह फैली हुई अँग्रेजी सेना देखी। सूर्य के प्रकाश में तोपें, सैनिकों की कलगियाँ, बंदूकों के ऊपर लगी हुईं संगीने दमक रही थीं। ये सब इन चौंतीस ने देखीं। फिर अपनी एक उस तोप की तरफ देखा।
उनके नायक ने अपने साथियों को एक जगह इकट्ठा करके कहा, ‘जब तक दम में दम है, फिरंगियों को यहाँ से आगे नहीं बढ़ने देंगे।’

‘नहीं बढ़ने देंगे !’ उन सबने मुट्ठियाँ कसकर, छाती ताने, सिर उठाये कहा।
‘पहले इसके कि गोरे हमारे ऊपर गोलाबारी करें, हम अपनी तोप में बत्ती लगा देना चाहिए।’ नायक ने समझाया और चौंतीस योद्धाओं ने एक-दूसरे से गले मिलकर अंतिम राम-राम की। कंठ किसी का नहीं काँपा, भौहों पर बल किसी के भी नहीं आया, गला किसी का नहीं भर्राया, उनके सटे ओठों पर भीनी सी मुस्कान थी; क्योंकि वे जानते थे कि क्या करने और पाने जा रहे हैं।

वे सब किसान थे, अवध के किसान। तोप चली, किले की फसीले के छेदों में से कड़ाबीनों मानो आग उगली। अंगरेजों का एक मोरचा तितर-बितर हो गया। इन चौंतीसों ने देखा कि अंगरेज अपने हताहतों को उठा-उठाकर पीछे किसी सुरक्षित स्थान पर लिये जा रहे हैं।

अंगरेजों की तरफ से तोपों और राइफलों ने मौत उगलनी शुरु कर दी। किला टूटने लगा। दीवारों और बुर्जों की धूल उड़ने लगी। परन्तु चौंतीस योद्धा अपनी-अपनी जगह पर अडिग थे।
अंगरेजी तोपों के फटनेवाले गोलों ने बुर्जों और दीवारों को तोड़ते हुए उन योद्धाओं पर भी वार किया। माघ महीने का उतरता पक्ष था। सूर्य की सुनहली किरणों में किले की बुर्जों और दीवारों के रज-कण मिल-मिलकर उन योद्धाओं के रक्त की बूँदों को एक-एक सूर्य-सा बना रहे थे। किले से थोड़ी ही दूर जंगल था। जंगल के पलाश वृक्षों के पत्ते गिर चुके थे, लाल कलियाँ हरी-हरी टहनियों पर उमगने लगी थीं। तोपों के धुएँ में से वे उन सूरमाओं के परमवीर बलिदान तो झाँक-झाँककर कुम्हला सी रही थीं। तीसरा पहर लग गया, परन्तु अंबरपुर के किले से तोप अब भी गरज रही था, कड़ाबीनें अब भी कड़क रही थीं।

चौंतीस में से एक गिरा, दो गिरे और गिरते चले गए; पर उनमें से किसी ने अपने ठिकाने से हटने की बात भी नहीं सोची। जहां जो खड़े-खड़े या बैठे-बैठे बंदूक चला रहा था, वहीं शत्रु की गोली खाकर मर गया। मेरे जीते जी तो अँगरेज वहाँ से आगे नहीं बढ़ सकेंगे, केवल यहीं एक धुन मन में थी और अंत तक रही। संध्या होने में देर थी कि उन चौंतीस में से तैंतीस योद्धा स्वतंत्रता संग्राम की बेदी पर बलिदान हो गए। उधर अँगरेजी सेना में हताहतों की संख्या पचास हो गई।




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